सोमवार, फ़रवरी 28, 2011

*** गांव के दो चित्र ***

*** गांव के दो चित्र ***
       [ दो कविताएं ]











** गांव में **
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तीन साल पहले
समाचार-पत्र में
समाचार था ;
गांव में पानी की तंगी
दूर होगी
बनेगी पानी की टंकी ।

अभी दस दिन पहले
समाचार-पत्र में
फ़िर समाचार था ;
पानी की टंकी में रिसाव है
इसे गिराने में ही बचाव है ।

आज फ़िर समाचार है
पानी की टंकी गिरा दी गई
यूं जनता बचा ली गई ।

यह अलग बात है कि
गांव में
किसी ने
समाचार-पत्र आने के सिवाय
कोई घटना
कभी भी नहीं देखी
प्रेस-नोट सरकारी थे
इस लिए विश्वसनीय थे ।


** अकाल में गांव **
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गांव में
चार साल से अकाल था
फ़ेमिन था
फ़ेमिन में
काम के बदले
अनाज मिलता था
जिस्म के बदले
और जिस्म में
जान नहीं थी
बिरखा के लिए
अलूणे रविवार
निर्जला सोमवार के
व्रतों के कारण ।

गांव की दीवारों पर
नारा था-
पानी बचाओ !
बिजली बचाओ !!
सबको पढा़ओ !!!
यह अलग बात है कि
गांव में
न पानी था
न बिजली थी
न स्कूल था !

गांव में
न धंधा था
न खेती थी
न उद्योग था ।
प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत
शहर से सड़क ज़रूर आ गई थी
जो ले गई
शहर में
आदमी कम
सौदागर बहुत थे
यूं तो शहर में
"काम" बहुत था
और आदमी का
आदमी बने रहना
बहुत मुश्किल था
लौटना पडा़
उसी गांव में
जो अंधी सुरंग से
कभी कम न था !







शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

** मेरी दो हिन्दी कविताएं **

** मेरी दो हिन्दी कविताएं **

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** गलियां **

कुछ गलियां
छोड़नी पड़ती हैं
कुछ आदमियों के कारण
और
कुछ गलियों में
जाना पड़ता है
कुछ आदमियों के कारण ।

गलियां
वहीं रहती हैं
वही रहती हैं
बदलते रहते हैं
आपसी सम्बन्ध
ठीक मौसम की तरह !

** रास्ता **

चलें
ऐसे रास्तों पर
जहां चल सकें
जूते पहन कर ।

अधिक से अधिक
ऐसा रास्ता भी
हो सकता है ठीक
जहां चल सकें
जूती हाथ में थाम कर ।

भला कैसे हो सकता है
वह रास्ता
जहां चलना पडे़
सिर पर उठा कर
अपनी ही जूतियां !








.

शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

कुछ हिन्दी कविताएं

सात हिन्दी कविताएं

[1] आग

जब
जंगल में
लगती है आग
तब
केवल घास
या
पेड़ पौधे ही नहीं
जीव-जन्तु भी जलते हैं
अब भी वक्त है
समझ लो
जंगल के सहारे
जीव-जन्तु ही नहीं
आदमी भी पलते हैं ।

[2] याद

यादें ज़िन्दा हैं तो
ज़िन्दा है आदमी
जब जब भी
यादें मरती हैं
मर जाता है आदमी !

भुलाना आसान नहीं ;
षड़यंत्र है
जिसे रचता है
खुद अपना ही ।
भुलाना शरारत है
और
याद रखना है इबादत ।
भुलाना भी
याद रखना है
अपने ही किस्म का ।

कुछ लोग
कर लेते हैं
कभी-कभी
ऐसे भी
जानबूझ कर
भूल जाते हैं
लेकिन नहीं हैं
ऐसे शब्द
मेरे शब्दकोश में ।

[3]  खत

जब खत न हो
गत क्या जानें
गत-विगत सब
खत-ओ-किताबत में
खतावर क्या जानें
नक्श जो
छाया से उभरे
उन से
कोई बतियाए कैसे
बतिया भी ले
उत्तर पाए कैसे ?

बिन दीवारों के
छत रुकती नहीं
फ़िर हवा में मकाम
कोई बनाए कैसे ?

नाम ले कर
पुकार भी ले
वे सुनें क्योंकर
लोहारगरों की बस्ती में
जो बसा करे !

[4] सबब

धूप की तपिश
बारिश का सबब
बारिश की उमस
सृजन की ललक
सृजन की ललक
तुष्टि का सबाब
यानी
हर क्षण
हर पल
विस्तार लेता अदृश्य सबब !

सबब है कोई
हमारे बीच भी
जो संवाद का
हर बार बनता है सेतु ।
मेरी समझ से
कत्तई बाहर है
कि मैं किसे तलाशूं
संज्ञाओं को
विशेष्णों को
कर्त्ताओं को
या फ़िर
संवाद के सबब
किन्हीं तन्तुओं को
या कि सबब को ही !

[5]  कब

कलि खिलती है तो
फ़ूल बन जाती है
फ़ूल खिलते हैं तो
भंवरे गुनगुनाते हैं

धूप खिलती है तो
चेहरे तमतमाते हैं
चेहरे खिलते हैं तो
सब मुस्कुराते हैं
यूं सब मुस्कुराते हैं तो
सब खिलखिलाते हैं \

यहां जमाना हो गया
कब खिलखिलाते हैं ?

[6]  चेहरा मत छुपाइए

हर आहत को
मिले राहत
ऐसा कदम उठाइए
खुशियां हों
हर मंजिल
ऐसी मंजिल चाहिए ।

हो कठिन
अगर डगर
खुद बढ़ कर
कंवल पुष्प खिलाइए ।

चेहरे पढ़ कर भी
मिल जाती है राहत
खुदा के वास्ते
चेहरा मत छुपाइए !

[ 7] मन निर्मल

न जगें
न सोएं
बस
आपके कांधे पर
सिर रख कर
आ रोएं !

पहलू में आपके
सोना
रोना
थाम ले मन
बह ले
अविरल
दिल का दर्द
आंख से
आंसू बन कर ।
हो ले मन निर्मल
औस धुले
तरू पल्लव सरीखा ।

कितना ज़रूरी है
तलाशूं पहले तुम्हें
तुम जो अभी
अनाम-अज्ञात
हो लेकिन
कहीं न कहीं
बस मेरे लिए
मेरी ही प्रतिक्षा में !

यही प्रतिक्षा
जगाती है हमें
देर रात तक
शायद हो जाएगी
खत्म कभी तो
कहता है
सपनों में
हर रात कोई !








रविवार, फ़रवरी 06, 2011

गज़ल















क्या पढे़गा भला कोई \

आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥

कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं


न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां इस कदर।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लायाहूं॥


क्या पढे़गा भला कोई इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥


न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥


निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥









गज़ल