रविवार, फ़रवरी 06, 2011

गज़ल















क्या पढे़गा भला कोई \

आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥

कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं


न मांग मुझ से मेरी तन्हाईयां इस कदर।
मैं इन्हें अपना सब कुछ खो कर लायाहूं॥


क्या पढे़गा भला कोई इतिहास अब मेरा ।
मैं वो पृष्ठ स्याही में डुबो कर आया हूं ॥


न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥


निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥









7 टिप्‍पणियां:

  1. कांधे पर मेरे हाथ मत रख ऐ रकीब ।
    यह लाश बडी़ दूर से ढो कर लाया हूं

    bahut pyari panktiyan
    ek shandar gajal...:)

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  2. न रुला अब किसी और अंजाम के लिए ।
    अपने जनाज़े पर बहुत रो कर आया हूं ॥


    निरी प्यास है इन में न कर तलाश पानी ।
    मैं इन आंखों में अभी हो कर आया हूं ॥


    bahut khoob gajal, ek ek gajal dil me uter gayi .badhai .........
    http://amrendra-shukla.blogspot.com

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  3. ओमजी की कविताओं से तो आनंदित होने का सौभाग्य मिलता ही रहता है आज आपकी ग़ज़ल ने भी मन मोह लिया.
    आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
    अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥
    वाह क्या शेर कहा है आपने. इतनी उम्दा और मुकम्मल ग़ज़ल के लिए बधाई. प्रणाम !

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  4. ek-ek shabd kuch keh reha hai. aap ki gazal padh kar usime doob gaya. is gazal ko hum tak pahunchane ke liye dhanyavaad

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  5. आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
    अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥

    some extraordinary intense lines ...
    love it utmost..:)

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  6. आंखों से एक सपना खो कर आया हूं ।
    अपनों में एक अपना खो कर आया हूं ॥
    बहुत सटीक....अन्तरंग द्वंद्व की सुन्दर अभिव्यक्ति ...हार्दिक बधाई...

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