रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

मन के पीछे आंख
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साकार है
सकल जगत
आंखें देखती हैं
इस मेँ
घट-अघट का
दृश्य पूरा
छूटता नहीं कभी
प्रत्यक्ष अधूरा ।

मन जो बैठा
भीतर मेरे
नित प्रति नित
उकेरे चित्र
विचित्र मनभावन
छूटे जब भी कोई
स्वपन अधूरा
आंखें रोना रोती हैं ।

नींद आंख का
अपना कौशल
भन के पीछे
रात-रात भर
झांक शून्य में
अपना होना खोती हैं ।

होना जाना
तन का कौशल
भ्रम पालते
मन -चितवन
चित्त के आगे
तन भी हारे
मौन आंखो की
इस में देखो
कितनी लाचारी है ।

बिछी खाट पर
देह पड़ी है
मनवा डोले बाहर
मन के पीछे
आंख चली है
पलक उघाड़े
खड़ी नींद को
भीतर कौन पसारे !

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