रविवार, मई 20, 2012

एक हिन्दी कविता

जागा सपना
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भरी दुपहरी
सुन दस्तक
जागा सपना
उभरी छवि
तिरछी चितवन
देखूं उसको
यक-ब-यक
उचक खड़ी
तपते आंगन
नंगे पांव
उठाए ऐड़ी
चल पड़ी !

सूने दर पर
हवा नाचती
प्रीतम अपना
किवाड़ रिझाने
मेरे मन के
बंद किवाड़े
खोल नचाने
दिखे न आते
पगथलियों में
उभरे छाले
दिल पर
मंडते जाते हैं
आओ कभी
दर्शन दे सहलाने !

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