मंगलवार, सितंबर 25, 2012

000 डबडबाई आंखें 000



आंख का काम
देखना था
देखते-देखते
क्यों भटक गई
आज अचानक
डबडबा गई क्यों !

दृश्यमान जगत
जगत की क्रियाएं
जरूरी तो नहीं-हों
आंखों की भावन
पवित्र-पावन
फिर क्यों हो जाती हैं
विचलित आंखें
झकझोर तार हृदय के
जोड़ कर खुद से
बह-बह जाती हैं ।

होना तो

होता ही है होना
होना तो नहीं होता
सब कुछ करना
होना करना जोड़ कर
क्यों टलकाती है आंखें
तरल गरल हृदय का
अपना दे कर सान्निध्य ।

मैं अकेला

बैठा मौन
भीतर घटता
घट-घट अघट
उल्टा-सीधा
उलट पलट
बिम्ब जबरी
उन सब का
बाहर बनाती क्यों
ये आंखें हम को
इतना भी
हर पल बरसाती क्यों !

जाना है मुझको

छोड़ जगत
आंख कहां फिर
ये रहने वाली है
इस बात पर भी देखो
आंख भरने वाली है ।


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