रविवार, अक्तूबर 21, 2012

मैं अब पेड़ नहीं


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एक रात अचानक
मेरा समूचा कमरा
जंगल में तब्दील हो गया
दरवाजे-खिड़िकियां
मेज-कुर्सियां
पलंग-सोफों में
निकल आई टहनियां
टहनियों पर पत्ते
पत्तों के बीच फूल
फूलों के बीच फल
फलों पर पक्षी
फूलों पर भंवरे
समूचा कमरा
जंगल की तरह
चहक गया गुंजार से
महक गया महक से
फिर तो मेरे कमरे में
बहार सी आ गई !

जंगल की बहार में
मैं भी बह गया
पेड़-पौधों से लिपट
गाने लगा तराने
किसी की थर्राती हुई
तेज आवाज आई
"जंगल छोड़ दो"
मैँ चिल्लाया
मैं जंगल नहीं छोड़ूंगा
वह पेड़ भी बोला
जिस से लिपटा था मैं
मैं अब पेड़ नहीं
महज पलंग हूं
खिड़कियां-दरवाजे भी
नहीं हैं पुष्पित पौधे
हमें छोड़ दो
अचानक आंख खुल गई
सामने खड़ी
माँ कह रही थी
अब पलंग छोड़ दो !

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