रविवार, अक्तूबर 21, 2012

बड़ी थी प्यास


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मृग था चंचल
दौड़ा स्वछंद
यत्र तत्र सर्वत्र
असीम थार में
पानी न था कहीं
प्यास थी आकंठ

प्यास ही ने उकेरा
लबालब सागर
मृगजल भरा
थिरकते थार में।

भरी दोपहरी
रचा पानी
उभरा अक्स
थार में
ले कर मृगतृष्णा
जिसकी चाहत
थमे दृग पग
भटक मरा मृग !

थार से
बड़ी थी प्यास
मरी नहीं
रही अटल
मृगी की आंख
थार में थिर !

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