रविवार, मार्च 30, 2014

गमले का पौधा

घर के बरामदे में
एक ओर पड़े
गमले का पौधा
नापना चाहता है
बढ़-चढ़ कर 
अपने ऊपर का आकाश
मगर बहुत लाचार है
सीमाओं के बीच
जो नहीं है
उसकी वांछनाओं में ।

वह
उतना ही बढ़ पाता है
मिलती है जितनी
उसे जमीन गमले में
जितना मिलता है
आकाश उसे
उतने ही धारता है
हरित पल्लव ।

पौधों जैसा ही है
गमले में लगा पौधा
हरा-भरा
पुष्पों से लकदक
फलों का मगर
नहीं कर पाता वरण ।

पौधे को यह ळाचारी
दी है बटौर कर
उसके मनोरम रूप ने
या फिर
मेरी आंख में था
सपना कोई जंगल का !

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