शुक्रवार, अप्रैल 25, 2014

हम तोआशा लिए बैठै हैं

अपनी हर बात पर तमाशा किए बैठै हैं ।

बडी़ ही सही हम तोआशा लिए बैठै हैं ॥

अपने दिल-ए-कांच की हिफ़ाजत करूं कैसे ।
वो शहर  भर के पत्थर ज़ब्त किए बैठै हैं ॥

उनके गम का हमसाकी बनूं भी तो कैसे ।
वो तो दुनिया के तमाम अश्क पिये बैठै हैं ॥

क्या जाने उनके भी दिल में है इधर सा ।
वो जो अर्से से अपने लब सिये   बैठै हैं ॥

कहां तक थामेंगे हाथ    सफ़र-ए-ज़िन्दगी में ।
वो जो उम्र का हर लम्हा आज जिए बैठै हैं ॥

वो क्योंकर आने लगे अब मेरे अलाव पर ।
जो अपने  दामन में आफ़ताब लिए बैठै हैं ।

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